बाँझ रोग
अरहर को नुकसान पहँँचाने वाली बीमारियों में बाँझ रोग (स्टेरिलिटी मोजेक) आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस रोग के प्रकोप से हमारे देश में प्रतिवर्ष उपज में काफी हानि होती है। बाँझ रोग का संक्रमण सर्वप्रथम 1931 में बिहार के पूसा नामक स्थान में देखा गया था। इसका प्रकोप देश के सभी मुख्य अरहर उगाये जाने वाले क्षेत्रों में पाया जाता है, लेकिन इसका अधिकतर प्रकोप बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, कर्नाटक एवं तमिलनाडु में देखा गया है।
बाँझ रोग एक विषाणु द्वारा होता है जिसे अरहर बंध्यता मोजेक (स्टेरिलिटी मोजेक वायरस) विषाणु का नाम दिया गया है। रोग का संचारण खेतों में एक अतिसूक्ष्म कीट (इरीयोफिड माइट) द्वारा होता है जिसका वैज्ञानिक नाम एसेरिया केजेनी है। रोगवाहक माइट खेत में एक पौधे से दूसरे पौधे तक एवं एक खेत से दूसरे खेत तक रोग फैलाता है। यह स्वयं उड़ने में सक्षम नहीं है। अतः वायु के प्रवाह या संस्पर्श द्वारा ही एक पौधे से दूसरे पौधे एवं एक खेत से दूसरे खेत तक पहुँचता है। वायु प्रवाह में यह एक कि.मी. से अधिक तक की दूरी तक जा सकता है। यद्यपि केवल एक माइट ही रोग का प्रसार करने में सक्षम है लेकिन प्रयोगों के आधार पर यह पाया गया है कि 20 माइट प्रति पौधा 100 प्रतिशत रोग संचारण में सहायक होते हैं। माइट का जीवन चक्र 15 दिनों में पूरा हो जाता है। जिसमें अण्डे, निम्फ एवं परिपक्व अवस्था होती है।
रोग के लक्षण
इस रोग का प्रमुख लक्षण यह है कि पौधा बौना, एवं हल्के रंग का होता है। पत्तियो का आकार सामान्य से काफी छोटा एवं पतला हो जाता है एवं उन पर अनियमित आकार की हल्की हरी एवं गहरी चित्तियाँ पड़ जाती हैं। रोगी पौधों में शाखायों की संख्या स्वस्थ पौधां की तुलना में अधिक हो जाती है तथा रोगग्रसित पौधे अन्य पौधों की अपेक्षा लम्बाई में छोटे रह जाते हैंं जिससे यह झाड़ीनुमा दिखने लगता है।
रोगग्रसित पौधे में फूल एवं फलियाँ नहीं लगती हैं इसीलिये इसे बाँझ रोग भी कहते हैं। पौधों की प्रारम्भिक अवस्था में (जमाव से 45 दिन के अन्दर) रोग का प्रकोप होने से सम्पूर्ण पौधा बाँझ हो जाता है और लगभग शत प्रतिशत तक नुकसान होता है। देरी से ग्रसित होने पर पौधा केवल आंशिक रुप से बाँझ होता है और नुकसान कम होता है। यह अवस्था आंशिक बंध्यता कहलाती है। फसल पकने पर स्वस्थ पौधे परिपक्व होकर कर सूखने लगते है जबकि रोगी पौधे लम्बे समय तक हरे ही दिखायी पड़ते हैं।
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