एकीकृत कीट प्रबंधन
जब इस कीट का प्रकोप अधिक होता है तो फसल की क्षति लगभग 80-90 प्रतिशत तक हो जाती है। इसलिये यह आवश्यक है कि फसल की बुआई के तुरंत बाद से ही कीट के निदान के बारे में सोचना प्रारम्भ कर देना चाहिए। किसानो के लिये यह आवश्यक है कि वे फसल को दूर से न देखे और अनुमान भी न लगाएं कि इस फसल में अमुक रोग या कीट का प्रकोप हो सकता है बल्कि खेत में जाकर खङी फसल को ध्यान से देखे एवं प्रत्येक पौधे का निरीक्षण पास जाकर करना चाहिये यदि फूल,पत्तियों एवं फलियों पर इस कीट का प्रकोप देखे तो तुरंत इसके निदान प्रारम्भ कर दें। इस कीट की सामायिक जानकारी के लिए ‘यौन आकर्षण जाल‘ (सेक्स फेरोमेन ट्रेप) एक उपयोगी साधन होता है। इस जाल में मादा कीट की कृत्रिम गंध रख दी जाती है जिससे नर कीट आकर्षित होकर फंस जाते है। जाङे के उपरान्त जब 5-6 नर कीट लगातार फंसते रहे तो यह अनुमान लग जायेगा की इस कीट के प्रकोप का प्रारम्भ एक पखवारे के बाद होने की संभावना है। यह जाल आर्थिक दृष्टिकोण से अच्छा एवं सुगम भी है। अनुसंधानों से ज्ञात किया गया है कि एक हेक्टेयर के लिए 5-6 यौन आकर्षण जाल पर्याप्त है।
सस्य विधियो द्वारा कीटो का नियंत्रण
सस्य विधियो का अनुसरण करके कीटों द्वारा होने वाली हानि को बहुत सीमा तक कम किया जा सकता है। इसके लिये यह आवश्यक है कि काबुली चना की समय से बुआई की जाय। बुआई का उचित समय मध्य अक्टूबर से नवम्बर का प्रथम सप्ताह उचित होता है। यह भी देखा गया है कि समय से बोई गयी फसल में कीटो का प्रकोप नही हो पाता है क्योकि समय से बोई गयी फसल कीटों के आने से पहले ही परिपक्व हो जाती है।
सहफसली खेती
चना के साथ सरसो, अलसी एवं गेहूॅ आदि की सहफसली खेती करने से न केवल चना फली भेदक का प्रकोप कम होता है बल्कि विभिन्न प्रकार की बीमारियॉ जैसे उकठा रोग में भी कमी दिखाई देती है। अतः चना के साथ सरसो (4ः1) एवं अलसी (4ः2) की सहफसले उगाने की संस्तुति की गयी है। सरसो की फसल के उपरान्त जमीन से 2 फीट ऊपर से काट लेनी चाहिए। सरसो के खङे व टूटे पौधे कीट-भक्षी चिङियो के बैठने के लिए एक उचित स्थान होते है।
जैविक कीट नियंत्रण
अनुसंधानो से यह ज्ञात हुआ है कि चना फली भेदक कीट का जैविक नियंत्रण कुछ सीमा तक संभव है। इस प्रकार के नियंत्रण से पर्यावरण दूषित होने से बचाता है साथ ही विभिन्न प्रकार की कीट नियंत्रण विधियॉ एक साथ काम करती है। प्रकृति में एक प्रकार का विषाणु न्यक्लियर पॉलीहेड्रोसिस विषाणु कीटो के भोजन के साथ उनके उदर में प्रवेश करता है तो उनमे विभिन्न प्रकार की बीमारियॉ उत्पन्न हो जाती है एवं 3-4 दिनो में कीट मर जाते हैं। यह विषाणु अब प्रयोगशाला में भी तैयार किये जा रहे है और प्रचुर मात्रा में बाजार में उपलब्ध है। जब इस विषाणु का खेतो में सामान्य कीट नाशको के रूप में छिङकाव किया जाता है तो यह चना फली भेदक कीट में रोग उत्पन्न करता है एवं गिडार 2-3 दिनो के अंतर्गत मर जाते है। परन्तु अन्य लाभकारी कीटो पर इसका कोई प्रभाव नही पङता है और ये अपना कार्य स्वतंत्र रूप से करते रहते है। आर्थिक हानि स्तर पर होने पर एन.पी.वी. विषाणु के 250 गिडार तुल्य घोल को 400 लीटर पानी में मिलाते है। इसमे 2 कि.ग्रा. गुङ एवं 40 मि.ली. नील या उजाला मिलाकर प्रति हेक्टेयर फसल पर छिङकाव करते है। एन.पी.वी. विषाणु के प्रयोग से दो प्रकार के लाभ होते है। इसका असर कीटनाशी जैसा ही होता है जिससे किसान स्वयं अपनी आखों से हानिकारक कीट को मारता हुआ देख सकते हैं, साथ ही साथ अन्य लाभकारी कीट बच जाते हैं।
कीटनाशी रसायन
चना फली भेदक का प्रकोप कम करने के लिये कीटनाशी रसायन भी उपलब्ध है, जैसे इण्डोक्साकार्प-1 मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर, रैनेक्सीपर-5 मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर, लेम्डा साईंहेलोथ्रिल- 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर, स्पाईनोसेड 0.4-1 मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिङकाव करना चाहिए। परन्तु इनका प्रयोग तभी करना चाहिए जब चना फली भेदक कीटो की संख्या आर्थिक हानि की अवस्था से अधिक हो जाए। यदि संभव हो तो नीम की निबौली का सत या नीम आधारित रसायनो का प्रयोग करना चाहिये। कुछ कीटनाशी जैसे एसीफेट 0.042 प्रतिशत, मोनोक्रोटोफास 0.04 प्रतिशत आदि परजीवियों को कम हानि पहुॅचाते हैं।
नीम की निबौली का सत्
एक हेक्टेयर चना की फसल के लिये 400-500 लीटर कीटनाशी अथवा नीम की निबौली के सत का घोल पर्याप्त होता है। नीम की निबौली का सत बनाने की विधि सुगम होती है। एक किलोग्राम हाथ से कुचली हुई नीम की निबोली की गिरी को पतले मलमल के कपङे में बांधकर 20 लीटर पानी में भिगोकर रातभर के लिए छोङ दे भिगोये हुए पदार्थ को अच्छी प्रकार से दबा कर निचोङ ले। कठोर पदार्थ का प्रयोग न करे इस 20 लीटर घोल में थोङा कपङे धोने वाला साबुन घोल दें इस तरह प्रयोग के लिए आवश्यक साधारण छिङकाव के लिए तैयार कर ले एवं दवा छिङकने वाली मशीन की सहायता से छिङकाव करें एक हेक्टेयर के लिए 20 कि.ग्रा. निबौली से 40 लीटर घोल तैयार हो जाता है। चना फली भेदक के विरूद्ध कुछ लाभकारी कीटनाशी सूत्रकृमियो की खोज की गयी है। ये सूत्रकृमि स्टेनरनेमा मसूदी और स्टेनरनेमा सीमाई है। इन सूत्रकृमियो को प्रयोगशला से आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। एवं इनका उपयोग धूल अथवा घोल के रूप में किया जाता हैं। उपरोक्त बातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि चना की फसल में सामयिक एवं एकीकृत कीट नियंत्रण कम खर्चीला, टिकाऊ और आसान होता है। इसका पर्यावरण पर बहुत ही कम दुष्प्रभाव पङता हैं। ऐसी कीट नियंत्रण विधियॉ छोटे एवं मध्यम श्रेणी के किसान आसानी से अपना कर अधिक से अधिक लाभ अर्जित कर सकते है।