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चूर्णील आसिता रोग 

गर्म या शुष्क वातावरण इस रोग के जल्दी फैलाने में सहायक होते हैं। । यह रोग इरीसाइफी पोलीगोनी नामक कवक द्वारा होता है। यह रोग फसल में वायु द्वारा परपोषी पौधों से फैलता है। यह कवक एक मौसम से दूसरे मौसम में संक्रमित पौध अवशेषों पर जीवित रहता है जो प्राथमिक द्रव्य (रोग कारक कवक) के रूप में रोग फैलाते हैं। रोग के प्रसार की उग्र अवस्था में यह लगभग 21 प्रतिशत तक फसल को होनि पहुचाता है। इस रोग के मुख्य लक्षण पौधे की सभी वायवीय भागों में देखे जा सकते हैं। 

रोग का संक्रमण सर्वप्रथम निचली पत्तियों पर कुछ गहरे (बदरंगे) धब्बों के रुप में प्रकट होता है। 

धब्बों पर छोटे-छोटे सफेद बिन्दु पड़ जाते हैं जो बाद में बढ़कर एक बड़ा सफेद धब्बा बनाते हैं। जैसे-जैसे रोग की उग्रता बढ़ती है यह सफेद धब्बे न केवल आकार में बढ़ते हैं। परन्तु ऊपर की नई पत्तियों पर भी विकसित हो जाते हैैं। अन्ततः ऐसे सफेद धब्बे पत्तियों की दोनों सतह पर, तना, शाखाओं एवं फली पर फैल जाते हैं। इससे पौधों की प्रकाश संश्लेषण की क्षमता नगण्य हो जाती है और अन्त में संक्रमित भाग झुलस/सूख जाते हैं 

रोग का प्रबंधन

 

  • रोग अवरोधी प्रजातियों का चुनाव करना चाहिए। 
  • फसल पर घुलनशील गंधक का 0.2 प्रतिशत घोल का छिडकाव रोग का पूर्णतः प्रबंधन कर देता है। 
  • कवकनाशी जैसे कार्बेन्डाजिम (0.5 ग्रा./ली. पानी ) या केराथेन का (1 मि.ली./ली. पानी) की दर से घोल बनाकर छिड़काव से इस रोग का नियंत्रण हो जाता है। प्रथम छिड़काव रोग के लक्षण दिखते ही करना चाहिए। आवश्यकतानुसार दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए।