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उकठा

यह चना का प्रमुख रोग है। उकठा रोग का प्रमुख कारक फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम प्रजाति साइसेरी नामक फफूँद है। यह समान्यतः मृदा एवं बीज जनित बीमारी है, जिसकी वजह से 10-12 प्रतिशत तक पैदावार में कमी आती है। यह पौधे के जीवनकाल में कभी भी ग्रसित कर सकती है। यह फफूँद बगैर पोषक या नियन्त्रक के भी मृदा में लगभग छः वर्षों तक जीवित रह सकती है। वैसे तो यह रोग सभी चना उत्पादक क्षेत्रों में फैल सकती है परन्तु जिन स्थानों में ठण्ड अधिक एवं लम्बे समय तक पड़ती है, वहाँ इस रोग का प्रकोप कम होता है। उकठा  रोग  पौधों  में  दो  अवस्थाओं  में  देखा  जाता  है।  प्रथम  अवस्था  में बुवाई के बाद 30 दिनों तक एवं द्वितीय अवस्था में बुवाई के 40 दिनों के बाद होता है ।यह रोग पर्याप्त मृदा नमी होने पर एवं तापमान 25-30० सेन्टिग्रेड होने पर तीव्र गति से फैलती है।   हल्की बलुई व भारी भिकवी मिटटी मे रोग काफी  उग्र रूप में दिखाययी देता है 25 प्रतिशात अधिक आर्दृता व 24-28 डिग्री सेलसियस मृदा तापमान अस रोग के लिये अनुकूल होता है।

लक्षण 

  • शुरूआत में रोगाणु  फफूद जड़ों केक सेवहनी ऊतकों पर आक्रमण करके पौधों के ऊपरी जल आपूति को बाधित कर देता है। रोगग्रस्त पौधा नीचे गिर जाता है और हल्के हरे रंग का हो जाता है।
  • बड़े पौधों की पत्तिया व कोपले झुक जाती है।
  • बाहर से देखने पर जड़े सड़ी हुई नही दिख्रती है किन्तु बीज से भीरने पर आन्तरिक जरइलम वाहिकाओं के गहरे भूरे रंग को देख जा सकता है।
  • रागग्रस्त पसौधैं की फालिया व बीज सामान्य पौधों की तुलना में सामान्यता छोंटे , सिकुड़े व बदंरग  दिखाई पड़ते है
  • । रोग की प्रारम्भिक अवस्था में  संक्रमित पौधे का ऊपरी भाग मुरझा जाता है। पौधों की पत्तियांँ पीली पड़ने लगती है और मुरझाकर झुक जाती हैं। संक्रमित पौधे दूर से ही पहचाने जा सकते हैं। अन्त में संक्रमित पौधा पूर्ण रुप सूख जाता है।
  • यह रोग पौधे को किसी अवस्था में संक्रमित कर सकता है। परन्तु सामान्यतः या तो फसल की पौध अवस्था (बुआई के 4-6 सप्ताह बाद) या फिर फसल की फूल व फली लगने वाली अवस्था में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है।
  • उकठा ग्रस्त पौधे में रोग की उग्र अवस्था में तनें के निचले भाग में संवहन ऊतकों का रंग भी भूरा या काला पड़ जाता है।
  • रोगी पौधे को उखाड़ कर फाड़ कर देखने पर उनकी जड़ो तथा तनों का बीच वाला भाग काला दिखाई देता है।
  • श्रोग ग्रस्त पौधे के बीज आपने साथ रागाधु के भी वाहक कार्य करते है।

रोग प्रबन्धन

  • रोगममुक्त  बीज का चयन करे व खेत में उचित साफाई रखे।
  • गर्मी  के  मौसम  में  खेत  की  गहरी  जुताई  करने से रोग  के प्रकोप में कमी आती है।
  • बुवाई अक्टूबर माह के अन्त या नवम्बर माह के प्रथम सप्ताह में कर देनी चाहिए। 
  • 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद प्रयोग करने से भी उकठा रोग में कमी आती है।
  • फफूँदीनाशी द्वारा बीज शोधित करके बोयें। कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन) 2.5 ग्रा0 या कार्बेक्सिन या + 2 ग्रा. थीराम अथवा 4 ग्रा. ट्राइकोडर्मा विरीडि + 1 ग्रा0  प्रति किग्रा. बीज के हिसाब से बीजोपचार करें। देशी :- जे जी 315, जे जी 16, जे जी 11, जे जी 12, जे 5637, जे 56 55,
  • काबुली :- जे जी के 1 , जे जी के 2 , जे जी के 3 जे  जी के 1का चयन करे
  • उकठा का प्रकोप कम करके हेतु तीन साल का फसल चक्र अपनाए। मतलब तीन साल तक चना नहीं उगाए। गंहू , ज्वार , सरसों व अलसी  युक्त फसल चक्र अपनाये ।
  • टलसी और चने की मिश्रित खेती भी रोग को दूर रखने में सहायक है।