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उकठा रोग

फूष्सेरियम ऑक्सिस्पोरम नामक कवक से फैलने वाला यह रोग बहुत अधिक विनाशकारी है। यह रोग मृदा जनित है क्योकि कवक मृदा में जीवित रहता है। यह रोग मृदा तथा बीज जनित है तथा इसका प्रकोप पौधो की किसी भी अवस्था में हो सकता है। यह रोग पौधों को नष्ट कर सकता है।

इस रोग का प्रकोप सभी मसूर उत्पादक क्षेत्रों में होता हैं लेकिन मध्य भारत में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। इसका प्रकोप विशेष तौर पर पौध अवस्था अथवा फूल एवं फलियॉ आने के समय होता है। कभी.कभी इसका प्रकोप 50-78% फसल को प्रभावित करता है।

लक्षण

 

नवजात पौधो में :- नवजात पौधों की पत्तियाँ सूखने लगती है व पौधे झुक जाते है। अन्ततः पूरा पौधा सूख सकता है। रोग ग्रस्त पौधे की जड़े स्वस्थ्य दिखायी देती हैं किन्तु उनमें शाखाये कम होती है।

वयस्क पौधे में :- वयस्क पौधों में रोग के लक्षण मुख्यता फूल आने के समय या फलियों में दाने पड़ने के समय दिखायी देते है।

रोग ग्रस्त पौधे की पत्तिया अचानक झुकने लगती है।

पौधे का रंग हल्का हरा होने लगता है व अन्ततः पूरा पौधा उकठा रोग से ग्रसित हो जाता है।

रोग ग्रस्त पौधे की जड़े स्वस्थ्य दिखायी देती है किन्तु पार्श्व शाखाये कम होती है।

स्वास्थ्य पौधो की तुलना में संक्रमित पौधे को उखाड़ना आसान  नही होता है।

जाड़ों का रंग हल्के से भूरा हो जाता है।

रोग ग्रस्त पौधे की फलियो के दाने अपना पूरा आकार प्राप्त  नही कर पाते है और अक्सर सिकुड़ जाते है।

 

रोग प्रबन्धन

  • उकठा रोग से बचाव के लिए गर्मियों ;मई.जूनद्ध में गहरी जुताई करनी चाहिए।
  • बुवाई अक्टूबर माह के अन्त या नवम्बर माह के प्रथम सप्ताह में कर देनी चाहिए।
  • बुवाई की तिथी का इस प्रकार निर्धारण करे कि राग उत्पन्न होने की अनुकूल परिस्थितिया आने तक फसल पक जाये
  • बीजों को कवकनाशीध्ट्राइकोडर्मा  4 ग्राम प्रति किग्रा तथा वीटावेक्स 0.5 ग्राम प्रति किग्रा दर से
  • उपचारित करके ही बोना चाहिए।
  • उकठा अवरोधी प्रजातियाँ जैसे आई.पी.एल. 81, डी.पी.एल. 62, जेएल-3 के चयन से इस रोग के प्रकोप को कम किया जा सकता है।
  • उकठा प्रभावित खेतों में अनाज की फसलों के साथ उचित फसल चक्र अपनाएँ जिसमें मसूर की फसल को 3-4 वर्ष तक नही बोएं। 
  • मसूर की अलसी के साथ मिश्रित खेती करने से उकठा रोग के प्रकोप में कमी आती है  अथवा रोग ग्रसित खेत में एक वर्ष के अन्तराल पर अलसी की खेती करना लाभकारी होता है। 
  • रोग ग्रस्त फसल की सिंचाई कदापि न करें।
  • रोग ग्रसित पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए। व खेत की साफाई का विशेष ध्यान रखना चाहियें ।
  • थीरम (3 ग्राम) अथवा कार्बेन्डाजिम और थीरम (1+2 ग्राम) प्रति किग्रा की दर से बीज उपचार करें ।